विष के सामान्य चिकित्सा
कर्म –
मन्त्र – मन्त्र उस शब्द के समुह को कहते है जिसकि विधि विधान के
अवुसार जाकर किसि देवि या देवता कि सिध्दिता अलौकिक शक्तिया प्राप्त करते है सत्य
वादि तपस्वि ज्ञानि व्दारा कहे मन्त्र व्यर्थ नही जाते है यह मन्त्र भयानक निष को
भी नष्ट कर सकते है मन्त्रो को सिध्द के लिए साधक को साधना करना चाहिए मदिरा
स्त्री मांस का परित्याग कर देना चाहिए अल्पाहार करना चाहिए मन्त्रो का प्रय़ोग
विशेष रूप से करना चाहिए मन्त्रो का प्रयोग
विशेष रूप से सर्प डंक मे किया जाता है कई मन्त्र विधि मे ऐसा भी करते है
कुछ मन्त्र कहते है जो रोगी को विष दन्ष कि सुचना देने वाले उसकि आकृति प्रकृती के
बारे मे विचार करके बतलाते है।
अरिष्ट बन्धन – अरिष्ट का अर्थ होता है अरिष्ट या मृत्यु सुचक अर्थात विष
के वेग को बढना हि अरिष्ट होता है सभी प्रकार के सापो दवारा इस लिए जाने पर दन्त
स्थान पर तत्कालिन चिकित्सा करते है चरक ने इसके बाद आवश्यक दन्त स्थान को विष
पिडन छेदन दहन रक्त मोक्ष्ण आदि धर्मो को करने का निर्देश दिया है।
सुश्रुत के अनुसार अरिस्ट बन्धन के उस स्थान पर रक्त दुषित हो तो
वन्धन को खोलकर उस स्थान को पोछकर जला देना चाहिए।
उत्कर्न – उत्कर्न का अर्थ है काचना या चिरा लगाना इसके अन्तर गत उस
स्थान के काट लेने पर विष का वेग नही बढता है चिरा लगाते समय मर्म स्थान का ध्यान
अवश्य रकना चाहिए यदि उसि स्थान पर है तो ससे थोडा हट कर छेदन करना चाहिए ।
इसका अर्थ है दबाना या
दबा-दबा कर निचोडना सर्वप्रथम डंस स्थान पर लगाते है फिर इसके पश्चात उसके चारो ओर
दबा-दबा कर निकाल दिया जाता है इससे रक्त
के साथ हि अधिकांश विष निकलने से विष का वेग आगे नही बढता है।
चुसन – इसका अर्थ है चुसना या चुस-चुस कर निकालना डंस स्थान पर
छेदन करने के पस्चात उसको चुसकर बाहर निकालते है।
अगनि कर्म या दहन – इसका अर्थ है जलाना या दागना सर्प दंस को छेदन या चुसने के
पश्चात उसका दहन करने का निर्देश दिया गया है । परन्तु मण्डली सर्प के काटने पर
दहन नही करना चाहिए दहन कर्म सोने लोहे कि
किल को आग से तपा कर अथवा पीतल कि डंग्ल को जलाकर उसमे किया जाता है
छिडकाव करना या छीटे मारना रोगी को होस मे लाने के लिए उसके लिए
मुह पर ठण्डे पानी से छिटा मारना चाहिए।
रोगी को ठण्डे पानी से स्नान कराना चाहिए पोछना चाहिए सिर पर बर्फ
कि थैलि बनाकर रखना चाहिए।
इसके लिए श्रृगी जलौका व्यधन आदि क्रियाओ का उपयोग किया जाता है
सके अन्तरगत पहले किसी तेज धार वाले दंस स्थानो पर कट करे या फिर जिस स्थान को
रक्त मोक्षण करना है उसे थोडा सा काट दिया जाता है फिर श्रृगी जलौका आदि के द्वारा
रक्त मोक्षण कराया जाता है श्रृगी ,गाय बैल आगि के सिह से बनायी जाती है इसके दोनो
ओर छेद होता है चौडे वाले छेद से घाव पर लगाकर दुसरी तरफ से मुह द्वारा रक्त को
चुसा जाता है।
जलौका या जोक दो प्रकार कि
होती है सविष या निविष जहा से रक्त मोक्षण कराना होता है । वहा पर थोडा सा घाव कर
के जोक को लगा दिया जाता है। वह लगते हि दुसित रक्त को पिना सुरू कर देती है। फिर
वहा से हटा कर दंस स्थान से रक्त श्राव कराया जाता है।
सोढ मरिच पीपल घर का धुआ
पाचो नमक गोरोचन वटि कटेरि इन सभी का चूर्ण बनाकर दंशस्थान पर घर्षण करने से या
रगडने से रक्त बहने लगता है।
वमन और विरेचन – विषश को शरीर से बाहर निकालने का महत्वपुर्ण उपाय है। शीतकाल
मे शीत से प्रेरित कफकाल मे कफ से पिडित रोगी को वमन करना चाहिए उदर मे दाह पीडा
दर्द मुत्र या मल रूकने से वायु के अवरोध से रोगी को विरेचन देना चाहिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें