शुक्रवार, 13 अक्टूबर 2017

आँवला या आमलकि

आँवला या आमलकि

दोस्तो आज हम बात करेगे आवला या आमलकि के बारे मे यह एरण्ड कुल का होता है। इसे आँवला तथा लैटिन मे इसे phyllanthus emblica  कहते है। यह फल देने वाला 20-25 फिट लंबा झारीय पौधा होता है। इसके फल समान्य स्वरुप के होते है। स्वाद मे इनके फल कसाय होते है।  दोस्तो यह त्रिदोषहर होता है यह आख और बाल के लिए बहुत हि लाभ कारी होता है। इससे आँखो कि रोशनी बनी रहती है बाल काले रहते है। यह पाचन तंत्र पर दिपन है यानी भुख को बढाता है। इसके सेवन से भोजन मे रुची आती है। आवले का फल प्रयोग मे लाते है। फल का रस रोजाना 10-20 ml  लेने से वहुत लाभ होता है आगर आप इसका चुर्ण लेना चाहते है तो चुर्ण कि मात्रा 3-6 ग्राम ले सकते है। इसके फल मे गैलिक एसिड, टैनिक एसिड, शर्करा, सेल्युलोज खनिज द्रव्य (मुख्यत: कैल्शियम) पाया जाता है । यह मुत्रल होता है। यह अतिसार, प्रमेह, विर्य को दृढ और आयु को बढाता है। इसमे विटामिन सी का प्रचुर मात्रा मे पाया जाता है।  

बुधवार, 11 अक्टूबर 2017

हरीतकि TERMINALIA CHRBYLA

दोस्तो आज हम बात करेगे हरीतकि के बारे मे इसका लैटिन नाम   TERMINALIA CHRBYLA कहते है हिन्दी मे इसे हर्रे या हरण कहते है। यह 50-80 कुट का वृक्ष होता है। छाल गहरे भुरे रंग की पत्ती 3-8 इन्च लम्बी 2-4 इंच चौडी अण्डाकार होती है। फल 1-2 इंच लम्बा अण्डाकार कङा होता है। जिसके पृष्ठ भाग पर पाँच रेखाए होती है। व्यवहारिक दृष्टि से यह तीन प्रकार कि होती है।
 1 छोटि हर्रे 2 पिलि हर्रे 3 बङी हर्रे
यह भारत मे सर्वत्र विशेषत: निचले हिमालय क्षेत्र मे रावि से पूर्व पश्चिम बंगाल और आसाम तक होती है। हरितकी का परीक्षण, हरितकी ठोस अण्डाकार हो जो पानी मे डालने पर डुब जाये तथा वजन मे 20 ग्राम के हो वह हरितकी श्रेष्ठ मानी जाती है।
यह त्रिदोष हर है। विशेषत: वात शामक है। इसका लेप सोथ (सुजन) के साथ दर्द को कम करता है यह दिपन पाचन करता है इसका फल प्रयोग मे लाते है फल का चुर्ण बनाकर 3-6 ग्राम मात्रा उपयोग मे लाते है। इसे गर्भवता महिलाओ को नही देना चाहिए।

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मंगलवार, 10 अक्टूबर 2017

विरेचन के प्रकार

 विरेचन के प्रकार –
1 मृदु विरेचन – इनके द्वारा मल मुलायम होता है और परिसरण गति थोडी बढ जाती है। इसमे मल अपक्व नही आता है। जैसे- अम्ल तास एरण्ड तैल गन्धक उजीर आलु बुखार जैतुन के तैल आदि।
2 सुख विरेचन – ये न अत्यन्त मृदु होते है और न अत्यन्त तिक्ष्ण अत: सुख पुर्वक दोषो का निर्दरण करते है। इसके द्वारा पक्व तथा अपक्व दोनो मल निकलते है। इसे सर्षव कहते है। जैसे – एतुआ रेवन्तचीनी आदि।
3 तिक्ष्ण विरेचन – ये सबकी अपेक्षा तिक्ष्ण होते है इनकि क्रिया तिव्र होती है। इनसे आत मे दाह एवं मरोण होकर पतला मल निकलता है। जैसे – जलापा, जयपाल, इन्द्रायणी, स्नुही आदि।

4 पित्त विरेचन – इन द्रव्यो कि पित्तासय और ग्रहणी पर उत्तेजक क्रिया होती है जिससे पित्त अधिक मात्रा मे श्रावित होकर मल के साथ बाहर निकलता है जिससे पिजित मल का भेदन होता है। जैसे – पारद एग्लुआ कुटका आदि। 

सोमवार, 9 अक्टूबर 2017

द्रव्य कर्म

द्रव्य कर्म
तृप्तिघ्न – माशय कफ से भरा होने के कारण पेट भरा-भरा लगता है और रोगी को खाने कि इच्छा नही करता है और भोजन से द्वेष दोने सगता है।
इस विकार को नष्ट करने वाला द्रव्य तृप्तिघ्न कहलाता है, जैसे शुण्ठी, मरिच चित्रक।
ये द्रव्य उष्ण व्र्य वाले रूक्ष गुण स्वाद मे कटू, तिक्त, कषाय रस वाले होते है।
दीपन – जिन औषधियो से जठराग्नि दिप्त होति है उसे दिपन कहते है।
उपयोग – मंदाग्नि से पिडित रोगी मे भूख कम हो जाती है । जिससे वह भोजन कम करता है। दिपन औषधि के प्रभाव से रोगी का भुख बढती है परन्तु इससे अन्न का पाचन नही होता है।
गुण – ये द्रव्य अग्नेय स्वभाव कटु अम्ल लवण रस उष्ण वीर्य तिक्ष्ण उष्ण गुण युक्त होते है.
जैसे— सैफ मरिच औद्रक (पाचन क्रिया के लिए)।
पाचन— जो औषधिया आभासयीक रसका स्राव बढा कर आहार का पाचन करे उसे पाचक या पाचन औषधि कहते है।
इन औषधियो से आहार का पाचन होता है किन्तु अग्नि का दिपन नही होता है।
उपयोग – इनका उपयोग वहा किया जाता है जहा भुख तो लगति है पर आहार का पाचन नही होता है। ये द्रव्य आग्नेय ह्रव्य कहलाते है।
नोट – कुछ द्रव्य दीपन और पातन दोनो क्रम करते है, जैसे- चित्रक ।
विदाही – जो द्रव्य पच्च मानावस्था (जब खाना पच रहा होता है।) मे पित्त का अधिक प्रकोप एवं तज्जन विदाह (जलन) उत्पन्न करता है। उसे विदाहि कहते है।
तिक्ष्ण उष्णविर्य एवं कटु अम्ल लवण द्रव्य विदाही होते है।
 विदाह शामक – जो द्रव्य आमाशय के विदाह (जलन) सान्त करे उसे विदाह शामक कहते है। ये दिरव्य पित्त शामक होते है। ये निम्न प्रकार से काम करते है।
(1)    पित्त का द्रवत्व कम करके पटोल गुडुचि तिक्त द्रव्य ये वात प्रधान होने के कारण द्रवत्व का शोषण करते है। इसी को अवशोषण कहा गया है।
(2)    पित्त कि उष्णता तिक्ष्णता का शमन करके जैसे नारिकेल आमलकी(आम के छिलके से बनता है।) आदि पित्त का शामक द्रव्य है।
वमन – जो द्रव्य आमाशय मे स्थित अपक्व अन्न श्लेष्मा एवं पित्त आदि दोषो को मुख मार्ग से बाहर निकाले उसे वमन कहते है। जैसे मदन फल
ये द्कव्य सर्व रस, उष्ण वीर्य, तिक्ष्ण सुक्ष्म गुण युक्त व्यवायी विकासी एवं अग्नि और वायु युक्त होते है। अग्नि और वायु ये दोनो महाभुत लघु होने के कारण उध्र्व गामी होते है और अपने साथ-साथ शरीर दोषो को भी बाहर निकालते है।
उपयोग – इन औषधियो का निम्न लिखित विकारो मे प्रयोग किया जाता है।
(1)    गला तथा ग्रास नली से सल्य को निकालने के लिए।
(2)    आमाशय से दोष या विष के निरहरण के लिए।
(3)    कुण्ठ श्लीपद आदि के विकार मे।
उत्तेजना अधिस्ठान से वमन द्रव्य दो प्रकार के होते है।
स्थानिक – सषर्प और तुत्थ आदि।
केन्द्रिय – अहिफेन (अफिम) आदि।
छर्दिनिग्रहण (ANTIEMETIC)ऐसी औषधिया जो उल्टि को रोके तथा कारण भुत दोषो को शान्त करे उसे छर्दिनिग्रहण कहते है, जैसे जम्बु, आम्र पल्लव आदि।
      आधुनिक दृष्टि से ये दो प्रकार के होते है।
स्थानिकस – जम्बु, आम्र पल्लव आदि।
केन्द्रिय – सुची आदि।
वातानुलोमन – अपान वायु को या कोष्ठ वायु को निचे कि ओर मल मे पवित्र करने वाले द्रव्य अनुलोमन कहलाते है। वायु कि प्रतिलोम होने से विवन्ध सहोजाता है। उसका वेधन अनुलोमन तो करते है किन्तु मल पातन नही करते है।, जैसे शुण्ठी।
 विष्टम्भि – विष्टम्भी द्रव्य कोष्ठ मे अधिक वात उत्पन्न कर आध्यमान आदि करते है।, जैसे कटफल आदि।
पुरिषजनन – जो द्रव्य पुरिष को अधिक मात्रा मे उत्पन्न करे उसे पुरिषजनन कहते है। जैसे उङद, यव आदि इसका पुरिष  क्षय मे प्रयोग किया जाता है।
विरेचन – जो द्रव्य अधोमार्ग या गुदा से मल को बाहर निकले उसे विरेचन या अधोभागहर कहते है।

       इसके द्वारा अपक्व या पक्व पुरिष दोष उदागमल से बाहर निकल आते है

रविवार, 8 अक्टूबर 2017

द्र्व्यो का नाम करण एवँ पर्याय

द्र्व्यो का नाम करण एवँ पर्याय
द्रव्यो का मौलिक (वास्तविक) वर्गीकरण – द्रव्यो का वर्गी करण आयुर्वेदाचार्यो ने अनेक कोणो मे किया है।
कार्य करण भेद से –- द्रव्य दो प्रकार के है कारण द्रव्य और कार्य द्रव्य सृस्टि के मौलिक तत्व जिनसे सभी द्रव्य उत्पन्न होते है कारण द्रव्य कहलाते है। ये संथ्या मे नौ होते है।
पंत महाभुत, आत्मा, मन, दिशा, काल।
इनसे उत्तम होने वाले सृस्टि के सभी द्रव्य कार्य कहलाते है।
घट, पट, गगोधुमि, गुडुचि इत्यादि।
चेतना भेद से – चेतना कि स्थिति के अनुसार द्रव्य दो प्रकात के होते है, चेतना और अचेतना।
चेतना – चेतना उसे कहते है, जिसमे चेतना धातु, आत्मा का निवास और अभिव्यक्ति हो।
जैसे – जिव जन्तु इत्यादि।
अचेतन – अचेतन उसे कहते है जिसमे कि स्थिति और अभिव्यक्ति  हो, जैसे सोना आदि धातु तथा पार्थिव द्रव्य।
चेतन द्रव्य दो भागो मे विभक्त है।
(1)    अन्तस्तचेतन
(2)    वहिस्तचेतन
अन्तस्तचेतन – अन्तस्तचेतन वह है, जिसमे चेतना कि पुर्ण अभिव्यक्ति नही होति है और जीवन कि संवेदनामे लगातार स्फुट रूप से चलति है।
इस वर्ग मे औभिद्द या स्थावर एक हि स्थान का वरण स्थित द्रव्यो का समावेश होता है।
वहिरस्तचेतना – वहिरस्तचेतना वह है , जिसमे अन्तरस्तचेतना कि वाह्य अभिव्यक्ति भी स्फुट व पुर्ण होती है।


शनिवार, 7 अक्टूबर 2017

पदार्थ विज्ञान

पदार्थ विज्ञान – द्रव्य गुण वज्ञान के सात पदार्थ है।
   (1)    द्रव्य
  (2)    गुण
  (3)    रस
  (4)    विपाक
  (5)    विर्य
  (6)    प्रभाव
  (7)    कर्म
(1)    द्रव्य – रसादि गुणो तथा वमनादि कर्मो का आश्रय भुत जो पंच भौतिक विकार है वह द्रव्य पदार्थ कहलाता है।
(2)    गुण – द्रव्य मे रहने वाले शीत ऊष्ण स्निग्ध रूक्ष आदि धर्मो को गुण कहते है।
(3)    रस – द्रव्यो का जो स्वाद होता है उसे रस से सम्बोधित करते है ।
(4)    विपाक – जठराग्नि पाक के अन्तरगत रस का अन्तिम परिणाम तीन प्रकार का होता है।
मधुर अम्ल और कटु
(5)    वीर्य – कर्म को विर्य कहते है, अर्थात “वीर्य तु क्रियते येन या क्रिया।“ को विर्य कहते है। कुछ लोग शीत और उष्ण दो तथा कुछ लोग शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरू, लघु, मन्द, तिक्ष्ण ये आठ विर्य मानते है।  वस्तुत: छ: वीर्य होते है इसे potencey भी कहते है।
(6)    प्रभाव – द्रव्यो कि जो सहज विशिष्ट शक्ति है वह प्रभाव कहलाति है। इसे specific potencey कहते है।
जैसे – अर्जुन का हृदय, शिरीस का विषघ्न, खादिर का कुषटह्न, विडंग का क्रिमिघ्न ।
(7)    कर्म – द्रव्य रसादि गुणो के द्वारा पुरुष शरीर मे जो संयोग विभाग ( परिवर्तन) उतपन्न करते है उन्हे कर्म कहते है। वमन विरेचन लंघन व्रहण आदि।


शुक्रवार, 6 अक्टूबर 2017

द्रव्यगुण कि परिभाषा DEFINATION OF DRAVYAGUNA

द्रव्यगुण कि परिभाषा --  द्रव्यो के नाम रुप गुण कर्म और प्रयोग का सर्वांगीण विवेचना जिश
शास्त्र मे हो उसे द्रव्य गुण कहते है।
द्रव्यगुण का महत्व और प्रयोजन – मनुष्य और अन्य प्राणियो को अपने शरीर कि रक्षा के लिए नाना प्रकार के द्रव्यो का आहार रुप मे उपयोग करते है। जिसके फलस्वरुप अनेक शरीरगत दोषो मे निरन्तर परिवर्तन होता रहता है।
      इन दोषो मे निरन्तर वैषम्पर (उतार- चढाव) होने के कारण नाना प्रकार के व्याधियो से ग्रस्त हो जाता है। द्रव्य के माध्यम से क्षीर्ण एवं वृध्द दोषो को क्रमश: वर्धन एवं क्षरन (क्षीणकरना) साम्यावस्था मे लाने के लिए द्रव्यो का प्रयोग किया जाता है
      द्रव्य और शरीर दोनो ही पंच भौतिक है।
विभाग – द्रव्यगुण विज्ञान दो भाग मे बाटा गया है।
(1)    पदार्थ विज्ञान
(2)    द्रव्य विज्ञान
(1)    पदार्थ विज्ञान – इस विज्ञन के अन्तर गत द्रव्यो के गुण रस विर्य विपाक प्रभाव एवं कर्म का सैध्दांतिक निरुपण किया जाता है। इसे basic consept कहते है।
(2)    द्रव्य विज्ञान – इसमे द्रव्यो का अध्ययन किया जाता है। जिसके निम्नलिखित तीन भाग है।
(1)    नाम रुप विज्ञान
(2)    संयोग विज्ञान
(3)    योग विज्ञान
(1)    नाम रुप विज्ञान – द्रव्यो का नाम जाती कुल स्नरुप आदी का परिचय किया जाता तथा उनकि स्थुल रचना वनस्पति विवरण एवं उत्तकिय संरचना तथा द्रव्यो कि प्रकिति पर देशकाल आदि का प्रभाव का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
(2)    संयोग विज्ञान – इसके अन्तरगत विभिन्न द्रव्यो के संयोग तथा उनकी विविध कल्पना का वर्णन किया जाता है।
(3)    संयोग विज्ञान – इसके अन्तर गत द्रव्यो की मात्रा काल आदि का विचार किया जाता है। इसके दो भाग है।
(1)    गुण कर्म विज्ञान (2) प्रयोग विज्ञान
(1)    गुण कर्म विज्ञान – इसके अन्तर गत द्रव्य के गुण तथा विभिन्न शरीर अवयवो पर उनके कर्म का अध्ययन होता है।

(2)    प्रयोग विज्ञान – इसमे गुण कर्म के आधार पर द्रव्यो का विभिन्न रोगो मे युक्ति पुर्वक प्रयोग बताया जाता है।